बच्चों में बढ़ती आत्महत्याएँ: नीरजा मोदी स्कूल की 9 साल की बच्ची की मौत ने झकझोरा समाज को

जयपुर। जयपुर के प्रतिष्ठित नीरजा मोदी स्कूल में एक 9 वर्षीय छात्रा द्वारा चौथी मंज़िल से कूदकर अपनी जान देने की घटना ने पूरे प्रदेश को हिला दिया है। चौथी कक्षा में पढ़ने वाली इस मासूम बच्ची की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के बाद परिवार ने स्कूल प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाए हैं।
परिजनों का कहना है कि घटना के बाद स्कूल ने खून के दाग साफ कर दिए और मामले को छिपाने की कोशिश की गई। वहीं, शिक्षा विभाग ने जांच कमिटी गठित कर दी है ताकि घटना की पूरी सच्चाई सामने लाई जा सके। (स्रोत: समाचार पत्र )

बढ़ती घटनाएँ और चौंकाने वाले आँकड़े
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर साल हज़ारों बच्चे आत्महत्या करते हैं।
•⁠  ⁠वर्ष 2023 में लगभग 13,000 से अधिक नाबालिगों ने आत्महत्या की।
•⁠  ⁠इनमें सबसे बड़ा प्रतिशत 14–18 वर्ष की आयु के बच्चों का था, लेकिन अब 8–12 वर्ष की उम्र में भी ऐसी घटनाएँ बढ़ रही हैं।
•⁠  ⁠प्रमुख कारणों में अध्ययन का तनाव, पारिवारिक कलह, और मानसिक तनाव और दबाव हो सकते हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार, “बच्चों की मानसिक स्थिति को समझने में समाज अभी भी पिछड़ा हुआ है। जो बात एक वयस्क को मामूली लगती है, वह बच्चे के लिए असहनीय हो सकती है।”

आख़िर क्यों कर रहे हैं बच्चे ऐसा कदम?
1.⁠ ⁠शिक्षा का दबाव: प्रतियोगिता और प्रदर्शन की दौड़ में बच्चे बहुत कम उम्र में मानसिक दबाव झेलने लगे हैं।
2.⁠ ⁠स्कूलों में डर और असंवेदनशीलता: शिक्षक की डांट, सहपाठियों की बदमाशी या प्रशासनिक कठोरता बच्चे के मन में गहरा असर छोड़ देती है।
3.⁠ ⁠संवाद की कमी: अभिभावक और शिक्षक बच्चों के व्यवहारिक बदलावों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
4.⁠ ⁠सोशल मीडिया और तुलना: ऑनलाइन दुनिया ने बच्चों के आत्मसम्मान और भावनात्मक स्थिरता को प्रभावित किया है।
5.⁠ ⁠मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी: अधिकांश स्कूलों में काउंसलर या मनोवैज्ञानिक सहायता उपलब्ध नहीं है।

नीर्जा मोदी स्कूल प्रकरण से उठे कुछ सवाल 
•⁠  ⁠क्या स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा और मानसिक देखभाल के पर्याप्त प्रबंध हैं?
•⁠  ⁠क्या प्रशासन और शिक्षक वर्ग बच्चों के व्यवहारिक संकेतों को समझने के लिए प्रशिक्षित हैं?
•⁠  ⁠क्या स्कूल ऐसी घटनाओं के बाद पारदर्शिता से काम कर रहे हैं या छिपाने की कोशिश?

क्या हो समाधान?
1.⁠ ⁠स्कूलों में बाल मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति अनिवार्य की जाए।
2.⁠ ⁠अभिभावकों और शिक्षकों को “संवेदनशील व्यवहार प्रशिक्षण” दिया जाए।
3.⁠ ⁠बच्चों से संवाद और सुनने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए।
4.⁠ ⁠हेल्पलाइन नंबर और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता स्कूलों में प्रदर्शित हों।
5.⁠ ⁠घटनाओं की जांच निष्पक्ष और पारदर्शी हो, ताकि दोषी को सज़ा मिले और ऐसी घटनाएँ दोहराई न जाएँ।
अन्ततः कहना चाहूँगी कि 
9 साल की यह बच्ची शायद डर या अपमान की भावना में घिरी थी, शायद किसी बात ने उसे गहराई से चोट पहुँचाई। लेकिन असली सवाल यह है — क्या हम उसके संकेत समझ पाए?
हर बच्चा जो चुप है, जो अचानक अलग-थलग दिखता है, जो पढ़ाई या खेल में रुचि खो देता है — शायद किसी मदद का इंतज़ार कर रहा है।

समाज, स्कूल और परिवार — तीनों को अब यह समझना होगा कि मानसिक सुरक्षा भी शारीरिक सुरक्षा जितनी ही जरूरी है।
वरना ऐसी त्रासदियाँ फिर दोहराई जाती रहेंगी, और हम सिर्फ “जांच कमिटी” बनाते रह जाएंगे।

लेखिका:
संगीता राम गर्ग हिन्दुस्तानी 

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