गैस चैम्बर बनी अनाथ दिल्ली की व्यथा - डा. विनोद बब्बर

यूं उत्तर भारत में सर्दी में घना कोहरा होना सामान्य बात है लेकिन  सर्दी से पूर्व ही  कोहरे का
कोहराम मचा दिखाई दे तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हर तरफ जहरीला धुआं क्यों है? पंजाब
और हरियाणा के किसानों द्वारा धान की फसल के बाद पराली जलाने को इसका तत्कालिक कारण
बताया जा रहा हैं। सामान्य से 20 गुना से भी अधिक प्रदूषित दिल्ली में आंखों में जलन, संास लेने
में कठिनाई के समाचार से बाहर से आने वाले पर्यटक तो अपना कार्यक्रम रद्द कर सकते हैं लेकिन
दिल्ली वाले कहां जायें, इसके बारे में सोचने की जरूरत न तो सत्ता वालों को है, न विपक्ष को और न
ही उन लोगों को है जो बात-बेबात टीवी चैनलों पर तूफान खड़ा करते हैं।
‘लांसेट कमीशन आन पाल्यूशन एंड हेल्थ’ के अनुसार वर्ष 2015 में भारत में प्रदूषण के कारण लगभग
25 लाख लोग असमय काल के गाल में समा गये लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि जिस गति से
हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रफ्तार से विकास की ओर
बढ़ रहा  प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर नियंत्राण सहज नहीं है। दुर्भाग्य  यह है कि आज वोटबैंक की
राजनीति के दौर में किसी भी दल में इतना नैतिक साहस नहीं कि वह सभी समस्याओं के मूल कारण
अर्थात् जनसंख्या नियंत्राण के लिए कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ सके।
स्पष्ट है कि समस्याओं की चर्चा करना और उनका समाधान करना दो अलग -अलग विषय हैं। चर्चा
के लिए तो मात्रा कुछ शब्द चाहिए लेकिन समाधान के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए। दुर्भाग्य से इस
मामले में हम  दीन- हीन हैं।  अनेक बार दीर्घकालिक समाज हित में शासक को अपनी लोकप्रियता
की चिंता तक को ताक पर रखना पड़ता है। राजनैतिक लाभ-हानि से ऊपर उठने का साहस चाहिए।
एक अगर समाधान की सोचे भी तो दूसरा उसकी खामियां ढ़ूंढ़ने लगता है। उसे जनविरोधी, लोकतंत्रा
विरोधी, फाजीवादी घोषित करने में जरा भी देरी नहीं करता।
स्वयं को देश की समस्याओं के समाधान का एकमात्रा विकल्प बताने वाले तथाकथित जननायकों से
यह पूछना मना है कि केन्द्रित विकास क्यों? क्यों देश के हर जिले में रोजगार के अवसर उपलब्ध
नहीं कराये गये? उनके इस अपराध के लिए रोजगार के लिए होने वाले पलायन के कारण ही दिल्ली
तथा अन्य महानगरों पर दबाव बढ़ा है। नगरों में तेजी से घटते हरित क्षेत्रा और बढ़ती झुग्गी बस्तियों
और स्लम को बढ़ावा देने वाले अपना अपराध स्वीकारना तो दूर, इस संबंध में चर्चा को भी गरीब
विरोध की ओर मोड़ने में माहिर हैं। वोटबैंक के मालिक बने रहने की चाह उन्हें मजबूर करती है कि
स्वयं को नारे तक सीमित रखते हुए अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश करोड़ों लोगों के जीवन
स्तर में सुधार से स्वयं को दूर रखें। दिल्ली का जहरीली गैसों का चैम्बर बनना उसी सस्ती लोकप्रियता
प्रतिफल है।
आज दिल्ली की हर सड़क रेहड़ी, पटरी, ई-रिक्शा से संकरी हो रही है। रही सही कसर लाखों वाहन पूरी
कर रहे हैं। केवल प्रशासन ही नहीं, नागरिक के रूप में हम सब भी नियमों को पालन न करने के दोषी
है। लगता है जैसेे हमने कभी न सुधरने की कसम खायी है। हमारे रहनुमाओं को स्वयं को निरपराध
साबित करने में विशेष दक्षता प्राप्त है। हम समस्याएं खड़ी करने के विशेषज्ञ हैं लेकिन उन समस्याओं
के प्रभाव के समक्ष हमारी स्थिति मूक दर्शक वाली है।
निजी वाहनों की भीड़ से दिल्ली की सड़कें परेशान हैं। मिनटों का सफर घंटों में तय होना रूलाता तो है
पर चौकाता नहीं है क्योंकि अब यह सामान्य बात है। पर्यावरण में सुधार के लिए केवल ईवन-ओड के
प्रयोग काफी नहीं हैं। सड़कों के कम से कम दो लेन सार्वजनिक यातायात के लिए सुरक्षित करने तथा
बसों की संख्या बढ़ाना आवश्यक है। बसों और मैट्रो किराये में कमी कर सड़कों से निजी वाहनों की
भीड़ और प्रदूषण को कुछ कम किया जा सकता है। घाटे का रोना रोने वालों को नेताओें की सुरक्षा पर
होने वाले भारी भरकम खर्च का नहीं तो कम से कम प्रदूषण से होने वाले रोगों के उपचार पर होने
वाले खर्च का तो हिसाब अवश्य लगाना चाहिए। इन  आवश्यक सेवाओं की प्राथमिकता लाभ कमाना
नहीं अपितु जनता को कम मूल्य पर अधिक से अधिक सुविधाएं प्रदान करना होना चाहिए।
बहुत संभव है एक फिर हमारे माननीय न्यायालय अथवा हमारे उदारमना शासक विशेषज्ञों की उच्च
अधिकार प्राप्त समिति बनाने की घोषणा करें जो उपाय सुझायेगी कि प्रदूषण से मुक्ति के लिए क्या
किया जाये लेकिन ध्यान रहे- उनसे यह पूछना मना है कि अब तक बनी समितियों के सुझावों का
क्या हुआ? उन्हें सब मालूम है, इसीलिए तो पिछले सुझावों को लागू न कर पाने के लिए आज तक
किसी को  जिम्मेवार नहीं ठहराया गया  और न ही किसी को दंडित किया। हाँ, यह जरूर होता रहा है
और बहुत संभव है कि इस बार भी हो कि सभी एक -दूसरे को जिम्मेवार ठहराकर स्वयं को पाक-साफ
साबित करने में पूरी शक्ति लगायंे बेशक प्रदूषण का स्तर और ऊंचा उठ जाये।  
चेहरे पर मास्क लगाना अथवा पानी की बोतल की तरह आक्सीजन की बोतले बाजार में उतारना कुछ
लोगों को रूचिकर लग सकता है लेकिन खतरे की यह घंटी चिल्ला- चिल्ला कर कह रही है कि अब 
कुछ करना जरूरी है।  सबसे जरूरी है बेलगाम बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाना। इसके बिना न तो
कानून का शासन संभव है और न ही पर्यावरण को सुधारा जा सकता है।
स्वच्छ शुद्ध हवा में सांस लेना हर मनुष्य का अधिकार है। इसे जाति, धर्म, अमीर- गरीब अथवा ऊंच-
नीच के नाम पर बाधित करने वालों को अयोग्य घोषित करने की पहल होनी ही चाहिए वरना दिल्ली
के बाद देश का हर नगर, गांव स्थाई रूप से जहरीली गैसों का घर बनकर बिना किसी भेदभाव के हम
सभी को  अस्वस्थ, अक्षम और फिर हमेशा के लिए अनुपस्थित कर सकता है। क्या कालेधन से
मुक्ति के लिए नोटबंदी के बाद प्रदूषण मुक्ति के लिए भी कोई सामने आयेगा? (युवराज)

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