नेहरू जी और विज्ञान - रत्ना रानी

हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, अपने सपनों के भारत को बनाने में विज्ञान को एक अनिवार्य आवश्यकता मानते थे। उन्होंने कहा था, ’अब यह निश्चित है कि विज्ञान और टेक्नोलोजी के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।‘ इसीलिए स्वतंत्रता के बाद के सत्तारह सालों में जब तक वे जीवित रहे, भारत के आधुनिकीकरण के लिए विज्ञान को सर्वोपरि स्थान देते रहे।
वे विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने को इतना अधिक उत्सुक रहते थे कि जब कभी भी उन्हें दूसरों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण समझाने का अवसर मिलता तो उसे हाथ से न जाने देते। उन्होंने कहा भी था ’मुझे जब कभी मौका मिलता है, मैं विज्ञान और टेक्नोलोजी पर अवश्य कुछ बोलता हूं। हमें यह महसूस करना चाहिए कि हमारा आज का जीवन किस प्रकार से विज्ञान और टेक्नोलोजी की देन है।
विज्ञान क्या है? इस बारे में उनका दृष्टिकोण था कि विज्ञान सत्य की खोज है, भौतिक विश्व संबंधी सत्य की उस सत्य को बार-बार प्रयत्न करने पर प्राप्त किया जाता है, सत्य जो निराधार बात को पहले से ही स्वीकार नहीं कर लेता, सत्य जो निराधार बात को अथवा उसे जो प्रत्यक्ष तथ्यों के आधार सही नहीं उतरती, त्याग देता है।
उनका विचार था कि सच्चा वैज्ञानिक स्थितप्रज्ञ होता है। जीवन और कर्म के फलों के प्रति निरासक्त होकर सदैव सत्य की खोज में लगा रहता है, चाहे वह खोज उसे कहीं भी ले जाए। किसी ऐसे बंधन में जकड़ जाना जिससे गतिशीलता ही नष्ट हो जाए, का अर्थ है, सत्य की खोज का त्याग और इस गतिवान संसार में स्थिर हो जाना।
नेहरू जी को जब भी किसी नई राष्ट्रीय प्रयोगशाला का उदघाटन करने अथवा किसी खास मौके पर उसका दौरा करने को बुलाया जाता था, कार्यभार से दबे रहने के बावजूद वे इसे तुरंत स्वीकार कर लेते थे। इससे पता चलता है कि वे वैज्ञानिक विकास को कितना महत्व देते थे।
विज्ञान को इतना अधिक महत्व देने के बावजूद वे यह महसूस करते थे कि इसका दुरूपयोग भी किया जा सकता है, इसीलिए वे चाहते थे कि इसका उपयोग मानव हित के लिए होना चाहिए न कि युद्ध के लिए अत्यधिक शक्तिशाली और विनाशकारी अस्त्रा बनाने में। कदाचित जवाहर लाल जी सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने परमाणु विस्फोट के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई।
परमाणु विस्फोट और उसके प्रभाव‘ नामक पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा था कि ’इस पुस्तक से इस बात का कुछ आभास मिलेगा कि हम कैसी दुनिया में रह रहे हैं और उससे भी अधिक यह पुस्तक हमें इस बात से परिचित करायेगी कि यदि परमाणु युद्ध शुरू हो जाए तो दुनिया का क्या होगा?’
मैं समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि इस नए विज्ञान के विशेषज्ञ भी हाइड्रोजन बम के विस्फोट के नतीजों से भली भांति परिचित नहीं हैं। फिर भी ऐसे युद्ध के बारे में जिनमें इन भयंकर अस्त्रों का प्रयोग किया जाएगा, ऐसे होने वाले विनाश के संबंध में हमें काफी जानकारी उपलब्ध है। परमाणु विस्फोट संबंधी यह पुस्तक जवाहर लाल जी के सुझाव पर ही लिखी गई थी और उन्होंने इसकी तैयारी और प्रकाशन में भारी दिलचस्पी ली थी।
1958 में सरकार के प्रसिद्ध वैज्ञानिक संबंधी प्रस्ताव को पेश करते हुए श्री नेहरू ने संसद में कहा था, ’भारत सरकार ने इस बात का निश्चय किया है कि देश की वैज्ञानिक नीति का उद्देश्य वैज्ञानिक वातावरण का निर्माण करना, विज्ञान के सैद्धांतिक, व्यवहारिक, शैक्षणिक सभी पहलुओं को विकसित करना, उनको बढ़ावा देना और उनको स्थायित्व प्रदान करना है और इसके लिए सभी उचित तरीके अपनाने हैं।‘ उन्होंने इस दिशा में प्रेरणादायक नेतृत्व भी किया।
उनका मानना था कि विज्ञान से हमें विश्व को सही रूप में देखने का ही अवसर नहीं मिलता बल्कि इससे अंततोगत्वा हमारा एक स्वभाव सा बन जाता है, वास्तविकता का स्वभाव, निर्लिप्त वैज्ञानिक स्वभाव जो हमें अन्य समस्याओं को हल करने में सहायता देता है। जो समस्याएं हमारे सामने संसद में अथवा अन्य किसी स्थान में सामने आती हैं, उन पर यदि हम एक वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो वे अच्छी तरह से हल की जा सकती हैं। वे चाहते थे कि भारतवासियों में यह वैज्ञानिक स्वभाव पैदा हो।
उन्होंने अपने काम से और अपने जीवन के आचरण से अदम्य साहस और निडरता के जाज्वल्यमान उदाहरण द्वारा हमारे देश में वैज्ञानिक परंपराओं की जड़ों को भारत की मिट्टी में स्थायी रूप से जमाने में बहुत बड़ा काम किया है। (युवराज)

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